Friday, August 17, 2012

खुबसूरत शहर


मैं भी कभी खुबसूरत था 
एक पावन मूरत था 
कोई आया और गुटका थूक गया
तुमने साफ़ नहीं किया 
और लाल रंग वहीं सूख गया  

मेरे हर कोने में आकर्षण था
तुम्हारी सभ्यता का मैं दर्पण था
कोई आया और मूत गया 
तुमने अनदेखा किया और
वो गीलापन वहीं सूख गया

मेरे कोनों ने इश्क का हर आयाम देखा 
यही पे आशिकों ने लांघी हर रेखा 
पर मुझपे प्यार की कहानी लिखना मज़बूरी नहीं था
इन नादान आशिकों से मुझे बचाना क्या ज़रूरी नहीं था?

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