Tuesday, May 7, 2013

शीशा और तुम

बहुत दिन हुए
तुम्हें शीशे के सामने खड़े नहीं देखा
क्या तुमने श्रृंगार करना छोड़ दिया?
या मैं तुम्हें श्रृंगार के पार देखने लगा हूँ?

जब देखता था तुम्हें काजल लगाते हुए
उन बंद आँखों के पीछे कुछ छुपाते हुए
आंख खुलते ही मेरी तरफ मुस्कुराते हुए|

वो एक हाथ से बालों को संभालना
दुसरे से दांतों में रखे क्लिप को निकालना
वो कानों में झुमके डालना
और वो नज़र मिला के भी मुझे टालना|

सब कुछ निहारता रहता था 
मेरा दिल बहुत कुछ कहता था
दिल तो आज भी कुछ कहता है
पर तुम शीशे के सामने दिखती नहीं
अब मैं वो सब कुछ कहूँगा 
जो शीशा  कभी कहता नहीं|